वक़्त बे वक़्त
आती तुम्हारी यादें..
कहाँ कहाँ
भटकाती हैं मुझे
पतंग बना खुद डोर बन
फ़र्श से अर्श तक ले जाती है
और मैं भटकती रहती हूं
भ्रमित होँ उस डोर से बंधी
मोहित हो कर बावरी हो कर
पगली हो कर..
काश..कोई झोंका हवा का
मुझे तुम तक ले जाये
और मुक्त कर दे
इन तड़पती यादों की डोर से !!
~Shweta
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