Sunday 15 December 2013

एक लड़की हरश्रिंगार के टूटे हुए फूल की तरह !!

कल गुहु का जन्मदिन है... उसने अपने पिता कि शुभकानाओं का इंतज़ार रात के १२ के बाद से ही करना शुरूकर दिया था ......हर फोन की घंटी पर दौड़ पड़ती ....बार-बार पेजर ऑन करती और उनके मैसेज का इंतज़ार करती ...रात यूँ ही बीत गयी इंतज़ार में .....सुबह की लालिमा अब उसकी आँखों में तैरने लगा थी .....हम सभी हॉस्टल की लड़किया गुहु के लिए दोपहर में ही पार्टी रखी थी ..... गुहु होस्टल में सबसे चहेती लड़कियों में से एक थी ...शाम को उसका मंगेतर आने वाला था ......उसे आउटिंग के लिए ले जाने के लिए ....हर पल हंसने वाली गुहु आज छुप-छुप रोने के बहाने ढूंढ रही थी ....गुहु को ऐसा मैंने पहले कभी नही देखा ...हर बार गुहु क्रिसमस की छुटीयों में घर चली जाती थी .... और १५ जनवरी से पहले नही आती थी .... इस बार छुट्टिया भी कम ही थी इसलिए उसे भी जल्दी ही आना पड़ा ....उसे अपने पिता से बहुत प्यार था ....और बहुत सारी उम्मीदें भी थी शायद इतनी उम्मीद तो हर लड़की को अपने पिता से करने का अधिकार भी है .......दिन बीत गया सहेलियों में ...शाम भी गुज़र गयी मंगेतर के प्यार में .....रात फिर आ गयी ...और अब भी उसका इंतज़ार ठहरा ही रहा ...... हम दोनों रूममेट थे ....मुझसे कहा तू सो जा ......और .....जब मेरी आँख खुली तो मैंने देखा ....रद्दी की टोकरी सफ़ेद कागज़ से भर गयी थी .....जाने क्या लिखना चाह रही थी ,,,रात भर स्टडी टेबल पर बैठी रही ...मैंने उठ कर देखा तो हर पन्ने पर एक ही बात ...और पेन से काटा हुआ मैंने गुहु से सवाल किया 'आखिर तू करना क्या चाहती है' क्या है तेरे मन में जो लिखना भी चाहती है और नही भी ...ये कैसा अंतर्द्वन्द है आखिर कब तक ???किस आकाश और ज़मीन के बीच तू उलझी है तेरा खुद का वजूद है फिर क्यूँ तू ...... मैंने झुककर दूसरे पन्ने को भी उठा लिया ....... गुहु ने मेरे हाथ से कागज़ ले लिया और कहने लगी आज मैं सब को जला दूंगी .....और अब कभी कुछ भी नही लिखूंगी ... मैं हतप्रद उसे देखे जा रही थी समझ नही आ रहा था कि क्या करूँ ......और कैसे ???? तभी गुहु बोली जो चीज़ मेरी थी ही नही मैं उसकी उम्मीद ही क्यूँ करती रही ??गलती मेरी है .....बस मेरी और मेरे दुःख का कारण भी यही .....सभी के जीवन में खुशिया हो जरुरी तो नहीं ..... मैं ही पागल थी घृतराष्ट्र की दुशाला बनने के ख्वाब सजोये बैठी थी ...भूल गयी थी क़ि उसके दो ही बेटे थे दुर्योधन और दुःशासन .........जिसके लिए वो जीता और मरता था ...जिसकी ख़ुशी उसके लिए सब कुछ थी .....जिसका गम उसे तोड़ता था...मैं ..... मैं क्या हूँ एक बोझ ..... जो जल्द ही उतर जाउंगी ....अस्थाई नौकरी वाला १६०० रु.कमाने वाला ...फॉरेन रिटर्न का लेबल लगा हुआ ..सस्ता सुन्दर टिकाऊ लड़का मिल ही गया है .....जल्द ही उसके गले बांध दी जाउंगी .......जिंदगी किस धारे में बहेगी ...कुछ पता नही ....... शायद रिश्ते की घनिष्टता और बढ़ेगी मेरी और मेरे कलम की .......दादी की बाँहों में पलने बाद ...अपने होश में आने के बाद ...टूटे फूटे शब्दों से रिश्ता जुड़ने लगा था ..माँ काप्यार हो या पिता का यहीं ..बस यहीं महसूस होने लगा था ...... आज आखिरी उम्मीद थी मुझे अब तक यही भ्रम था कि मैं अपने पिता कि लाड़ली बेटी हूँ ...पयरे भाइयों की अकेली बहन ....अच्छा हुआ भ्रम टूट गया .....उम्मीद बहुत तक़लीफ़ देती है.....जब से होश सम्भाला था खुद को बहुत तक़लीफ़ देती रही .....पर अब नही .....अब मुझे खुद से रिश्ता निभाना है .....अपने प्यार और अपने शब्दों से रिश्ता निभाना है ...अब मुझे सब भूलकर जीना होगा ...........हर बंधन को भूलकर पंछी कि तरह खुले आसमान में उड़ूंगी .....और पेड़ों पंछियों से ही साथ निभाउंगी...............खिलते धूप कि तरह मेरी रचनाएं भी खिल उठेंगी ...तारों की तरह हर शब्द जगमगा उठेंगे मैं भी अब हर्षिगर के फूलों की तरह डालियों से गिरने पर शोक नही मनाउंगी बल्कि अपनी खुशबु से अपने आस पास के वातावरण को महकाने कि कोशिश करुँगी ........ आज गुहु के हँसते चेहरे के पीछे का ये छुपा दर्द मेरे सीने में उतर आया ..... मैंने ईश्वर से कहा ये तेरा कैसा न्याय है ...जिसे हॅसने की चाह होती है तू उसे ही क्यूँ इतना रुलाता है ?? जिसे बेटियां बोझ लगती हैं उसके आँगन में बेटी का बीज क्यूँ रोप देता है ?? शुक्र है ...मेरा कोई भाई या बहन नही ...........!
मैं समझ नही पा रही थी कि ये लड़की है या हरश्रृंगार की डाली से टूटी हुई और खुशबु लुटाती हुई एक फूल  !!

$hweta

Sunday 8 December 2013

एक दीया !!!


अन्धकार को चीरता एक दीया
जो सरहद पर आँधियों से लड़ता रहा
बर्फ के गोले खाता कहीं रेत पर सोता रहा
मन बावरा दुश्मनों की भीड़ में जीत की आस पर लड़ता रहा

मंजिल की ख़बर नही वक़्त का पहिया तेज़ चलता रहा
कंही सो गए वो कंही इंतज़ार का दीया जलता रहा
कल रात कुछ सो गए कुछ दिलों में ज़ख्म पलता रहा
दीया था आस का अमावस में भी टिमटिमाता रहा

मन था बावरा बावरे को भीड़ में ढूंढता रहा
कुछ सुफेदियों में दफ़न थे कुछ सुपुर्द-ए-ख़ाक होता रहा
दीया था या बावरा मन किस भवर में उलझता रहा
लौ थर-थाराती रही जिन्दगी और मौत का किस्सा भी चलता रहा

दोखज़ के राह पर थे खड़े कुछ ज़न्नत की ओर काफिला भी चलता रहा
हर आँगन में सरहदों पर मिटने वालो की सलामती का दीया रोशन होता रहा
अमन की चाह में ख़ामोशियों के राह पर पाकीज़गी हर क़दम संभलती रही और एक दीया जलता रहा !!!

!!!$hweta !!!

तुम थे और मैं थी !!!

शब् थी तुम थे और मैं थी
नींद का नामो निशां न था
लम्हों में उलझी बस कुछ बातें थीं
कुछ अलफ़ाज़ थे जो लबों पर आ रुके थे


खामोश निगाहें थी और एक तस्वीर तेरी थी
कुछ बादल थे कुछ पलकों की कतारों पर रुकी बूंदें थी
कुछ गुज़रे लम्हे थे बिस्तर की सिलवट में आ ठहरे थे
कुछ ख्वाब थे लिहाफ़ से उड़ तकिये के नीचे पिघल रहे थे



एक उदासी थी और रात अभी पूरी बाकी थी
चांद भी रूठा था चांदनी की रौनक भी हल्की थी
गुनगुनाती सबा भी हैरान थी अंधेरों की ख़ामोशी थी
एक तसव्वुर में अब भी वही जीस्त हर हाल मुस्कुराती थी


~~~$hweta~~~

शब्द !!

कितने बरस बीत गए
शब्द वो जो कुछ तुम
कुछ हम लम्हों में सहेज गए
कुछ धूप में कुछ स्याह में
उधेड़े और कुछ बुन गए
लम्हें उन्हें पिरो कर
तसव्वुर में सजा गए !!!
$hweta

ए दिल !!!!

बड़ी सर्द रात गुजरी है
थोड़ी सी गुनगुनी धूप ओढ़ लूँ

तल्खियों की रही आवा जाही बहुत
आ मेरे ख्वाबो ख्यालों तुझे आगोश में भर लूँ

बादलों का था पहरा बहुत गहरा
गिरती बूंदों आओ मिल के तुमसे जिस्म भिगो लूँ

धुंध सी उठती रही हर सुबह
ए शाम आ तुझे मैं दीपों की लड़ियों से सज़ा लूँ

करवट करवट चूर चूर पड़े हैं सपने
ए ख्वाबों के चादर एक लम्हे को तेरी सिकन मिटा दूँ

उदास फिजां और है सबा की सरगम गुम
ए दिल जरा ठहर मैं एक बार अपना आँचल तो लहरा दूँ
$hweta

भीना सा मौसम !!!

एक भीना भीना सा मौसम
यादों की मुंडेर पर आ बैठा है
एक पल ख़ामोशी के आँचल में
दूजे पल बादलों के संग उड़ पड़ता है
यादों की फुहारों में जीवन बगिया
ख़िल कर ताज़गी से भर उठती है
एक कुमभलाता सा कवल अपने ही
तालाब के पानी में मुस्कुरा उठता है
ये यादें भी निर्जीव को सजीव कर जाती हैं
कभी नवप्राण नव चेतना से काया को नव उल्लास दे जाती हैं !!!!!!


$hweta

एक बूंद !!!



वो एक बूंद
जो पलक तक
आ ठहरी थी
जाने कितने
ख्वाब समेटे
जाने कितने
सपनो के रंग लिए
अनछुई थी बस
एक स्पर्श से
टूट कर गिरी
और दफ़न हो
गयी हथेली में !
!!! $hweta!!!

एक सिरा !!!

वो उलझनों के
धागे का एक सिरा
जो मैंने वर्षों पहले
तुम्हारे हाथों में थमाया था
कभी समान्तर चले
कभी आगे पीछे
पर चलते रहे निरंतर
हम दोनों के हाथ अब भी
एक एक सिरा है
न वादों की गांठें थी
न ही कसमों की
एक अनकहे संकल्प
के तरुवर की छाया थी
कल रात राह में भी
हम समान्तर सिरा थामे
कुछ ही कदम चले थे क़ि
उलझनों का वो धागा
सिमट गया था लेकिन
सिरा अब भी हमारी
उँगलियों के बीच उलझा हुआ था
!!! $hweta !!!